Supreme Court Decision on India Presidential Pocket pocket veto beyond powers Constitutional Crisis Article 142 Ruling sparks row.

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की न्यायपालिका और खासकर संविधान अनुच्छेद 142 पर की गई टिप्पणी के बाद विवाद बढ़ता जा रहा है. संविधान में संवैधानिक अथॉरिटीज के बीच सहभागिता और संतुलन कायम रखने के लिए शक्तियों का अलग-अलग कर सीमाएं तय की गई हैं. सुप्रीम कोर्ट का तमिलनाडु के राज्यपाल के खिलाफ राज्य सरकार की याचिका पर दिया गया फैसला इन सीमाओं को तोड़ता है. यहां तक की राष्ट्रपति के पॉकेट वीटो की शक्ति को खत्म कर तीन माह की समय सीमा तय करता है, जो सर्वोच्च अदालत की शक्ति से परे है. ऐसा खुद सुप्रीम कोर्ट की 13 सदस्यीय संविधान पीठ ने केशवानंद भारती फैसले में कहा है, जिसके मुताबिक कानून निर्माण या संविधान संशोधन की शक्ति सुप्रीम कोर्ट को नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद-142 के तहत मिली अपरिहार्य शक्ति से संविधान में बदलाव नहीं कर सकती, सिर्फ व्याख्या कर सकती है, जबकि 8 अप्रैल को दिए गए फैसले में जस्टिस जेबी पारदीवाला की दो सदस्यीय बेंच ने समयावधि तय कर दी. फैसले में कहा गया है कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचार के लिए प्रेषित विधेयकों पर विचार करने का संदर्भ मिलने की तिथि से तीन माह के भीतर निर्णय लेना चाहिए. ऐसा पहली बार है कि जब राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए अवधि निर्धारित कर दी गई.

संविधानविदों के तर्क

संविधान में राष्ट्रपति को प्रदत्त पॉकेट वीटो की शक्ति इस फैसले से खत्म होती है. बहुतेरे संविधानविदों का तर्क यह भी है कि विधेयकों पर निर्णय लेने की अवधि के पहलू पर निर्वात की स्थिति थी, जिसकी व्याख्या सर्वोच्च अदालत ने कर दी, जबकि दूसरा पहलू यह है कि संविधान निर्माताओं ने अपरिहार्य कारणों से पॉकेट वीटो की शक्ति समय-सीमा के दायरे से बाहर रखकर राष्ट्रपति के लिए निहित की. इसके कारण संवैधानिक पदों की शपथ से भी स्पष्ट होते हैं.

राष्ट्रपति की शपथ के मुताबिक, यह पद संविधान के संरक्षण, सुरक्षा और प्रतिरक्षण के लिए है, जबकि अन्य संवैधानिक पद शपथ में संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा पर आधारित हैं, यानी राष्ट्रपति का ही एक ऐसा पद है, जो संविधान के संरक्षण के लिए जिम्मेदार है और पॉकेट वीटो संविधान के संरक्षण की एक शक्ति है. यानी माना जा सकता है कि कई मौकों पर विधेयकों को पॉकेट वीटो के तहत रोके रखना राजनीतिक महात्वाकांक्षा, जो देशहित में नहीं है. उसके मद्देनजर जरूरी हो.

ज्ञानी जैल सिंह ने किया था पॉकेट वीटो का इस्तेमाल

सुप्रीम कोर्ट के फैसले को न्यायिक समीक्षा की अति सक्रियता मानने वाले कानूनविदों का यह पक्ष है कि संविधान सभा में मौजूदा स्थितियों ही नहीं, भविष्य की अनचाही स्थितियों को ध्यान में रखकर विचार किया गया था. हालिया उदाहरण वक्फ (संशोधन) अधिनियम-2025 है, जिसके देश में लागू होने के बाद एक राज्य की मुख्यमंत्री ने यहां तक कह दिया कि वह राज्य में केंद्रीय कानून को लागू नहीं होने देंगी. कल को अगर वह राज्य विधानसभा में इतर विधेयक पारित कराकर राज्यपाल को भेजती हैं तो महामहीम किस शक्ति के तहत उसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय निर्धारित अवधि के बाद रोके रख सकेंगे. ऐसे तमाम स्थितियां हैं, जो सर्वोच्च अदालत के हालिया फैसले के बाद उपज सकती हैं.

राज्यपालों के जरिए राज्य की सरकारों के लिए परेशानी खड़े किए जाने के आरोप नए नहीं हैं. यहां तक कि पॉकेट वीटो से देश के सातवें राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने तत्कालनी प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में संसद से पारित इंडियन पोस्ट ऑफिस (संशोधन) विधेयक को रोक दिया था. संविधान कहता है कि राष्ट्रपति अपनी पॉकेट वीटो की शक्ति का इस्तेमाल करेगा या नहीं, यह सब कुछ उसके विवेक पर निर्भर करता है. राज्यों में राज्यपाल, राष्ट्रपति के प्रतिनिधि होते हैं ऐसे में संविधान के तहत मिली उनकी शक्तियों में निर्वात होने पर सुप्रीम कोर्ट परिभाषित कर सकता है, लेकिन उसको नया रूप नहीं दे सकता. ऐसा किया जाना संविधान में बदलाव करना होगा, जिस पर केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च अदालत का रुख बड़ा स्पष्ट है.

सरकार के पास मामले में दो न्यायिक उपचार

राष्ट्रपति, राज्यपाल के निर्णय को समयावधि में बांधने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला प्रशासनिक दृष्टि से अच्छा हो सकता है, लेकिन न्यायाधीशों को इसमें भी संवैधानिक सीमाओं का ख्याल रखना चाहिए था. अब सरकार के पास इस मामले में दो न्यायिक उपचार हैं. इस फैसले के खिलाफ सरकार पुनर्विचार याचिका दायर कर सकती है और उससे भी हल नहीं निकलने पर क्यूरेटिव याचिका का अंतिम न्यायिक समीक्षा का विकल्प है, जबकि सरकार चाहे तो फैसला पलटने के लिए अध्यादेश लाकर तत्काल कदम उठा सकती है. अध्यादेश लाने के बाद छह माह के भीतर उसे संसद सत्र में फैसला पलटने के लिए इस संबंध में विधेयक पारित कराना होगा. इसके अलावा सीधे तौर पर सरकार सत्र शुरू होने पर विधेयक को संसद में पारित कराकर फैसले को पलट सकती है.

याद रहे कि शक्तियों का पृथक्करण भारतीय संविधान का यह महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जो यह सुनिश्चित करता है कि सरकार के तीन अंग- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, अलग-अलग और स्वतंत्र रूप से काम करें, लेकिन सहयोगात्मक भी रहे. भारतीय संविधान संरचना निर्धारित करता है, राज्य के प्रत्येक अंग की भूमिका तथा कार्यों को परिभाषित एवं निर्धारित करता है. उनके अंतर्संबंधों तथा नियंत्रण और संतुलन के लिये मानदंड स्थापित करता है.

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